श्रीराम ने ‘गुरू’ बनकर भक्तिमती ‘शबरी’ को दिया था ‘नवधा भक्ति’ का उपदेशः जाह्नवी भारती

देहरादून। मानव जगत मंे मनुष्यों द्वारा जब भी परमात्मा की शाश्वत् भक्ति का प्रारम्भ होता है तो सर्व प्रथम पूर्ण गुरू की शरणागत् होकर पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ को प्राप्त कर, परम लक्ष्य ईश्वर का दर्शन करना होता है, तदुपरान्त ही परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग सुलभ हो पाता है। भक्ति रूपी मंजिल को यदि प्राप्त करना चाहते हैं तो संत-सद्गुरू की शरणागत् होकर प्रथमतः श्रीराम का प्रत्यक्ष दर्शन करना ही होगा। इसके पश्चात् ही कथा प्रसंग, ईश्वरीय महिमा को श्रवण करने तथा अन्यान्य समस्त पूजा पद्धतियां सम्भव हो पाती हैं, सार्थक हो जाती हैं। त्रेताकाल में जब भगवान श्री राम भक्तिमती शबरी की कुटिया में उन्हें दर्शन देने हेतु पधारे तो वरदान स्वरूप उन्होंने गुरू बनकर शबरी जी को नवधा भक्ति का उपदेश दिया। जिसमें प्रथम सोपान पर ही कहा गया- ‘‘प्रथम भक्ति संतन कर संगा…..’’ अर्थात संत महापुरूष का दिव्य संग ही भक्ति का शुभारम्भ बनता है। यह उद्बोधन सद्गुरू आशुतोष महाराज जी, (संस्थापक-संचालक दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान) की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती जी ने रविवरीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम में संगत को संबोधित करते हुए तथा भजनों की सारगर्भित मिमांसा करते हुए दिया गया।
मनभावन भजनों की अविरल श्रंखला को प्रस्तुत करते हुए मंचासीन संगीतज्ञों द्वारा संगत को भाव-विभोर किया गया। 1. जीवन दाता, जग के विद्याता, मैं संतान तिहारी……. 2. मेरा कोई न सहारा बिन तेरे, गुरूदेव सँावरिया मेरे…….. 3. आपको पाकर हमें, सारा जमाना मिल गया…… 4. जे तू बेलिया, तन-मन दे नाल, सेवा करदा जंावंेगा, सतनाम वाहेगुरू करदा, भव तों तरदा जंावंेगा…… इत्यादि भजनों पर संगत झूम उठी-नाच उठी।
भजनों के उपरान्त आज के सत्संग-प्रवचनों को प्रस्तुत करते हुए साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी ने अपने विचारों के मध्य कहा कि मनुष्य मात्र का प्रेम प्रभु के श्रीचरणों में लग सके, ईश्वर को चाहकर जीव अपना जीवन सार्थक कर सके, यही सब सत्संग के भीतर बताया जाता है। चकोर का बच्चा चकोर से भी अधिक चांद का दीदार किया करता है। एैसा इसलिए क्योंकि चकोर भले ही रात्रि भर चांद को निहारा करता है परन्तु दिन के समय वह चकोर, चकोरी के मोहपाश में बंध जाता है और फिर अगली रात्रि को ही चांद का दर्शन करने लगता है। जबकि चकोर का मासूम बच्चा रात्रि भर तो चांद का दीदार किया ही करता है साथ ही दिन के समय वह दोनों हाथ बंाधकर व्याकुलता में प्रतीक्षा किया करता है कि मुझे पुनः कब चांद का दीदार होगा। इस प्रकार वह दिन मे भी चांद का ही चिंतन किया करता है, आठों प्रहर अपने प्रिय चांद के स्मरण में ही व्यतीत किया करता है। विदुषी जी ने कहा कि एक भक्त को भी आठों प्रहर अपने प्रभु का ही चिंतन-स्मरण करते रहना चाहिए, ठीक भगवान श्रीराम जी के अनुज श्री लक्ष्मण जी के सदृश्य। श्री लक्ष्मण जी अपनी दृष्टि को सदैव दिन हो या रात्रि प्रभु श्रीराम जी के श्रीचरणों में ही लगाए रखते थे। उन्होंने अपनी भूख-प्यास, निद्रा, राज्य भोगने की समस्त इच्छाएं, सारे सुख अपने ईष्ट श्रीराम जी के चरणों में ही समाहित कर दिए थे। साध्वी जी ने कहा कि भक्ति का मार्ग जहां एक ओर अति दुर्गम मार्ग बताया गया है वहीं भक्तों ने जब अपना सर्वस्व अपने सद्गुरूदेव भगवान के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया तो यही मार्ग परम आनन्द को प्रदान करने वाला परम सुखकारी मार्ग बन गया। इस मार्ग में समर्पण और त्याग अति अनिवार्य है तभी भक्ति की पराकाष्ठा को छुआ जाता है। प्रेम के इस महान मार्ग में मात्र गुरूदेव को ही समक्ष रखा जाता है। तभी भक्तों के मुखारविंद से यह प्रस्फुटित हुआ- ‘पहले मैं था हरि नाहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं, प्रेम गली अति सांकरी, या में दो न समाहिं।’ यदि मनुष्य को श्रीकृष्ण सदृश्य पूर्ण गुरू का प्रेम, सानिध्य और स्नेह पाना है तो उसे अर्जुन बनना होगा जो पल-प्रतिपल यहां तक की निद्रा में भी श्वांस-श्वांस में अपने सद्गुरू श्रीकृष्ण का ही चिंतन-भजन किया करते थे। एैसा चिंतन करने वाले भक्त के जीवन में कभी भी चिंता पास तक नहीं फटकती है।